कितना भ्रमित मन
कि इक बार का मिलन
मांगता था सदैव,
पर क्या दे पाये तुम
कोई नया संदेश,
उकेर दी तुमने कई नई रेखायें
मेरे मानस पटल पर,
द्वंद मचा दिया ह्र्दय स्थली पर
व चुपचाप चल दिये मुझे
छोड फिर से तपती, और तपती रेत पर |
मृगमरिचिका सा मन
सदैव तुम्हारे सानिध्य को आतुर
तुम्हे आवाज देता |
तुम्हे आना है फिर से
यहां मिलेंगे हम और तुम
एकाकार होने हेतु
तृप्त करने यही अधूरी पिपासा फिर से,
प्रिय हम अवश्य मिलेंगे
भले अगले ही जन्म में सही |
1 टिप्पणी
hi Shabnam
ye kavita bahut achi hai agar ye aap ki apni kavita hai to aap bhot ache kavita karte ho….
ye kavita bahut achi lagi mujhe. asha karta hun aap ese he sadev acha likhte rahe…
santosh kumar
chandigarh