हिमाचल में सूखे से बागवानी पर गहराया संकट, नौणी यूनिवर्सिटी ने जारी की एडवाइजरी

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By Hills Post

सोलन: हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में सर्दियों की बारिश न होने के कारण सूखे जैसे हालात उत्पन्न हो गए हैं, जिसका सीधा दुष्प्रभाव, विशेषकर वर्षा आधारित इलाकों में, बागवानी फसलों पर पड़ रहा है। डॉ. यशवंत सिंह परमार औद्यानिकी एवं वानिकी विश्वविद्यालय, नौणी के विशेषज्ञों ने इस स्थिति को गंभीरता से लेते हुए किसानों के लिए एक विस्तृत एडवाइजरी जारी की है।

आंकड़ों पर नजर डालें तो प्रदेश में वर्षा का पैटर्न अनियमित रहा है और 9 अक्टूबर, 2025 के बाद से राज्य में बारिश की एक बूंद नहीं बरसी है। लगभग 70 दिनों के इस लंबे शुष्क काल के कारण फलों के बागों में जल-अभाव की गंभीर स्थिति पैदा हो गई है। विशेषज्ञों का कहना है कि मध्य पहाड़ी क्षेत्रों में मिट्टी की 30 से 50 प्रतिशत नमी वाष्पीकरण के कारण नष्ट हो जाती है, जो वर्तमान परिस्थितियों में और बढ़ सकती है।

सूखे के तनाव से निपटने के लिए विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने सेब, आड़ू, प्लम, खुबानी, जापानी फल, अखरोट और कीवी जैसे फलों के पौधों का नया रोपण फिलहाल टालने की सलाह दी है। यदि रोपण किया जा चुका है, तो पौधों को जीवन रक्षक सिंचाई देना अनिवार्य है, जिसके लिए ड्रिप सिंचाई प्रणाली और मल्चिंग सबसे प्रभावी उपाय हैं।

मल्चिंग के तहत पौधों के बेसिन (तौलिये) को सूखी घास या फसल अवशेषों की 5 से 10 सेंटीमीटर मोटी परत से ढकने की सलाह दी गई है, जिससे नमी लंबे समय तक सुरक्षित रहती है और तापमान में उतार-चढ़ाव से भी बचाव होता है। इसके अतिरिक्त, इस शुष्क अवधि में पेड़ों के बेसिन में खुदाई करने से पूरी तरह बचना चाहिए ताकि मिट्टी की बची हुई नमी नष्ट न हो। जब तक मिट्टी में पर्याप्त नमी न आ जाए, तब तक नाइट्रोजन, फॉस्फोरस और पोटैशियम जैसे रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग भी वर्जित किया गया है, हालांकि गोबर की खाद का उपयोग किया जा सकता है।

रोग प्रबंधन और पौधों की सुरक्षा के लिए भी विशेषज्ञों ने महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं। सेब के बगीचों में गिरे हुए पत्तों को या तो गड्ढे में दबाकर सड़ा देना चाहिए या उन पर 5 प्रतिशत यूरिया का छिड़काव करना चाहिए। सफेद जड़ सड़न रोग से बचाव के लिए संक्रमित पेड़ों की जड़ों को धूप दिखानी चाहिए और संक्रमित हिस्सों को हटाकर बोर्डो पेंट लगाना चाहिए।

इसी प्रकार, कॉलर रॉट और कैंकर रोग के प्रबंधन के लिए प्रभावित हिस्सों को स्वस्थ भाग तक खुरचकर साफ करें और उस पर तांबा-आधारित फफूंदनाशक पेंट का लेप करें। प्राकृतिक खेती करने वाले किसानों को 15 दिन के अंतराल पर जीवामृत का छिड़काव करने और ‘वापसा’ स्थिति बनाए रखने का सुझाव दिया गया है। लंबी अवधि की सुरक्षा के लिए किसानों को फसल विविधीकरण, एकीकृत खेती और ‘मेघदूत ऐप’ के माध्यम से मौसम की सटीक जानकारी प्राप्त कर अपनी गतिविधियों की योजना बनाने की सलाह दी गई है।

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