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इंसानी रिश्तों को शर्मसार करते पंचायती फैसले, तार-तार होती रिश्तों की गरिमा

बादली: हरियाणा में जातिगत पंचायतें समाज की भलाई या सामाजिक समस्याओं के निवारण के कार्यों के लिए नहीं बल्कि समाज को बांटने, बसे-बसाये घरों को तोड़ने और गोत्र के नाम पर मौत के फरमान सुनाने जैसे बर्बर एवं घृणित कार्यों के लिए अधिक चर्चा में रही हैं। अब एक बार फिर ये पंचायतें अपने तानाशाही एवं अमानवीय रवैये और तालिबानी फतवों को लेकर चर्चा में हैं। बीते दिनों सिर्फ एक सप्ताह के अंदर ही एक-एक कर ऐसे ही कई मामले सामने आए, जिन्होंने तालिबानी हुकूमत की यादें ताजा कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

30 जनवरी 2010 को रोहतक जिले के गांव खेड़ी में दो साल से भी अधिक समय से खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे एक दम्पत्ति को पंचायत द्वारा भाई-बहन बनाए जाने का फरमान सुनाया गया जबकि उसके महज दो ही दिन बाद 1 फरवरी को नारनौंद क्षेत्र के गांव खांडा-खेड़ी में एक नवविवाहित दम्पत्ति सहित पूरी बारात को ही न तो गांव में घुसने दिया गया, साथ ही नवविवाहित दम्पत्ति को जान से मारने की धमकी भी दी गई। इसी प्रकार 3 फरवरी को जींद जिले के बूढ़ाखेड़ा गांव के नवीन और फरमाणा गांव की नीलम की तीन दिन बाद ही होने वाली शादी न होने देने का फरमान पंचायतियों द्वारा सुनाया गया।

भारतीय लोकतंत्र को कलंकित करती इस तरह की घटनाओं से यही संकेत मिल रहे हैं कि 21वीं सदी में आधुनिकता की ओर तेजी से आगे बढ़ते हमारे समाज का सही मायने में तालिबानीकरण होता जा रहा है।

पंचायतों के अमानवीय फैसले

बीती 30 जनवरी को रोहतक जिले के महम हलके के गांव खेड़ी में हुई पंचायत ने ऐसा फरमान सुना डाला था, जिससे इंसानी रिश्ते तो शर्मसार हुए ही, पंचायत ने 10 माह के मासूम बच्चे के भविष्य पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिए थे। गोत्र विवाद को लेकर खेड़ी गांव में आयोजित हुई पंचायत में करीब सवा दो साल पहले वैवाहिक बंधन में बंधे दम्पत्ति को संबंध विच्छेद कर आपस में भाई-बहन का रिश्ता कायम करने का फरमान सुनाया था।

दरअसल खेड़ी (महम) के आजाद सिंह बेरवाल के बेटे सतीश की शादी नवम्बर 2007 में भिवानी जिले के गांव भागी बिहरोड़ के राजबीर बैनीवाल की पुत्री कविता के साथ हुई थी। खेड़ी गांव में बैनीवाल गोत्र की भी बहुलता है, इसलिए बेरवाल और बैनीवाल गोत्रों में आपसी भाईचारे का रिश्ता कायम है। हालांकि शादी के बाद से लेकर अब तक सब कुछ ठीक-ठाक चलता रहा किन्तु मामले ने तूल तब पकड़ा, जब गत दिनों खेड़ी गांव के कुछ लोग भैंस खरीदने के सिलसिले में भिवानी के भागी गांव में गए और वहां भैंस खरीदने के बाद फिरौती की रकम को लेकर आपस में चल रहे हंसी-मजाक के बीच किसी ने सतीश और कविता के संबंध को लेकर कोई मजाक कर दिया। बस, उसके बाद खेड़ी गांव के लोगों ने सतीश और कविता के गोत्रों की छानबीन की और उसके बाद खेड़ी गांव में एक पंचायत का आयोजन किया गया।

30 जनवरी को पंचायत ने फैसला सुनाने के लिए 21 सदस्यीय समिति का गठन कर दिया, जिसने फरमान सुनाया कि पिछले सवा दो साल से पति-पत्नी के रूप में साथ रह रहे सतीश और कविता अब भाई-बहन की तरह रहेंगे। दोनों के 10 माह के बेटे रौनक का दादा यानी सतीश का पिता रौनक का नाना कहलाएगा। कविता सतीश के साथ न रहकर अपने मायके में रहेगी और रौनक उसी के साथ रहेगा। पंचायत ने निर्णय दिया कि सतीश का पिता सतीश को अपनी चल-अचल सम्पत्ति से बेदखल करेगा और उसे गांव वालों से कविता का गोत्र छिपाने के कारण रौनक के नाम तीन लाख रुपये का फिक्स डिपोजिट करवाना होगा। सतीश की तमाम सम्पत्ति भी रौनक के नाम होगी। पंचायत में सजा के तौर पर सतीश के पिता के मुंह में जबरदस्ती जूता भी ठूंस दिया गया।

कविता का पंचायत के फैसले के संबंध में कहना था कि जब उसकी शादी हुई थी तो विवाह समारोह में दोनों गांवों के सैंकड़ों लोग मौजूद थे और सभी के सामने कई बार वर-वधू पक्ष के गोत्र पंडित जी द्वारा पढ़े गए थे, उस वक्त लोगों ने इस ओर ध्यान क्यों नहीं दिया कि उसका गोत्र बैनीवाल है? कविता का कहना था कि फेरों के समय वहां मौजूद बारातियों को तब उसका गोत्र सुनाई नहीं दिया तो इतने लंबे समय बाद अब कैसे सुनाई दे गया? वैसे भी सतीश और कविता का रिश्ता शादी से 9 महीने पहले ही तय हो गया था। फिर इतने समय तक भी दोनों गांवों के लोगों ने कोई बात क्यों नहीं उठाई?

कविता के साहस की दाद देनी होगी, जिसने पंचायत के घोर अमानवीय और घृणित फैसले के समक्ष झुकने केे बजाय कहा था कि उसने सतीश के साथ सात फेरे लेते समय उसके साथ जीने-मरने की कसम खाई थी, जिसे वह हर हाल में निभाएगी और अगर पंचायतियों ने उसके परिवार को प्रताड़ित किया तो वह जहर खाकर आत्महत्या कर लेगी और इस मामले में कार्रवाई के लिए कोर्ट का सहारा भी लेगी। उसकी शिकायत पर ही प्रशासन द्वारा पंचायत में ऐसा फैसला सुनाने वालों की खोजबीन शुरू की गई और खासकर तब प्रशासन नींद से जागा, जब 1 फरवरी को पंचायत के इस अमानवीय फैसले पर पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए चीफ जस्टिस मुकुल मुदगल तथा जस्टिस जसबीर सिंह की खण्डपीठ ने हरियाणा सरकार को नोटिस जारी कर जवाब मांगा। खण्डपीठ ने कहा कि किसी विवाहित जोड़े को भाई-बहन की तरह रहने का फरमान कैसे सुनाया जा सकता है?

मामला हाईकोर्ट के संज्ञान में आने और अपने फैसले को लेकर चौतरफा आलोचनाओं से घिरने के बाद आखिरकार 5 फरवरी को खेड़ी पंचायत को भी अपना फैसला बदलते हुए इस शादी को मान्यता देनी पड़ी लेकिन इस पूरे प्रकरण ने कई गंभीर सवालों को जन्म दे दिया। सवाल यह है कि एक बसी-बसाई गृहस्थी को उजाड़ना और एक मासूम बच्चे के सारे हकों पर कुठाराघात करना क्या कोई इंसानियत है, कोई न्याय है? 10 माह के मासूम रौनक का क्या कसूर था, जिसके माता-पिता को भाई-बहन बनने का फरमान सुना दिया गया था, जिसके दादा को उसका नाना बना दिया गया था? उसे किस बात की सजा दी जा रही थी? अगर पंचायत के तुगलकी फरमान के खिलाफ पुरजोर आवाज बुलंद नहीं होती तो अपने ही जन्मदाता, अपने ही पिता को वह क्या कहकर पुकारता?

क्या पंचायतों के ये पैरोकार इस सवाल का जवाब दे सकेंगे कि ऐसे बच्चों को स्कूलों या अन्य संस्थानों में पिता का नाम कौन देगा? उनके प्रमाण पत्रों में पिता के रूप में किसका नाम लिखा जाएगा? उनकी परवरिश कौन करेगा? सर्वाधिक हैरत की बात तो यह है कि मानसिक दिवालियेपन के प्रतीक ऐसे अमानवीय फैसलों के खिलाफ न समाज के किसी कोने में कोई आवाज सुनाई देती है, न सत्ता के गलियारों में, यहां तक कि वोटों की राजनीति के चलते विपक्ष की आवाज भी कहीं गुम हो जाती है। चाहे कोई मंत्री हो या सांसद या किसी भी दल का कोई विधायक, पंचायतों के ऐसे तालिबानी फैसलों के खिलाफ बोलना तो दूर, कोई समाज को इस दिशा में जागरूक करने के लिए रत्ती भर भी पहल करता दिखाई नहीं देता।

नारनौंद क्षेत्र के गांव खांडाखेड़ी में 1 फरवरी को एक नवदम्पत्ति को न तो गांव में घुसने दिया गया और उन्हें जान से मार डालने की धमकी भी दी गई, जिसके बाद इस दम्पत्ति ने कई घंटे थाने में बिताए किन्तु पुलिस की दखलंदाजी के बाद भी उन्हें गांव नहीं भेजा जा सका और ग्रामीणों के विरोध के बाद दम्पत्ति को दूल्हे की बहन के घर शरण लेनी पड़ी।

दरअसल करीब एक साल पहले खांडाखेड़ी गांव के धानक समुदाय के सतबीर खनगवाल के बेटे रवि का रिश्ता नंगथला गांव के कर्मबीर नागर की बेटी कविता से तय हुआ था, जिनकी शादी की तारीख 31 जनवरी 2010 तय हुई। उससे ठीक 20 दिन पहले वर पक्ष कविता की मांग भरने की रस्म भी पूरी कर आया लेकिन जैसे-जैसे शादी की तारीख नजदीक आने लगी, नंगथला में नागर गोत्र के लोगों ने इस रिश्ते का विरोध शुरू कर दिया, जो इस रिश्ते को तुड़वाने के लिए वर पक्ष के घर भी गए किन्तु दोनों पक्षों ने ऐन मौके पर शादी तोड़ने से मना कर दिया। 31 जनवरी को जब खांडाखेड़ी से बारात रवाना हुई तो लोगों ने चेतावनी दी कि शादी के बाद बारात को गांव में नहीं घुसने देंगे। आखिर जैसे-तैसे यह शादी तो सम्पन्न हो गई किन्तु अगले दिन बारात को गांव में नहीं घुसने दिया गया किन्तु महम के खेड़ी गांव के मामले में पंचायत के फैसले को लेकर जिस तरह का माहौल बना और हाईकोर्ट ने जिस प्रकार उस मामले का संज्ञान लिया, संभवतः उसी का परिणाम रहा कि 4 फरवरी को गांव की 36 बिरादरी की पंचायत ने दोनों गोत्रों के लोगों से बातचीत कर इस मामले में समझौता करा दिया और यह तय किया गया कि रवि और कविता अब पति-पत्नी के रूप में गांव में रह सकते हैं।

जींद जिले के बुढ़ाखेड़ा गांव के बूरा गोत्र के नवीन और फरमाणा गांव की सहारण गोत्र की नीलम की 6 फरवरी को होने वाली शादी से तीन दिन पहले 3 फरवरी को फरमाणा गांव से 200 लोगों का काफिला बुढ़ाखेड़ा गांव पहुंचा था, जिसने इस आधार पर कि फरमाणा में दोनों गोत्रों के बीच भाईचारा है, नवीन की सहारण गोत्र की लड़की से शादी तोड़ने के लिए वर और वधू पक्ष को फरमान सुनाया था किन्तु वर पक्ष ने पंचायत से यह सवाल करते हुए रिश्ता तोड़ने से साफ इन्कार कर दिया था कि यह रिश्ता 1 नवम्बर 2009 को तय हुआ था, तब से अब तक पंचायत कहां थी। उधर लड़की के परिजनों ने भी रिश्ता तोड़ने से इन्कार कर दिया था, जिसके बाद पंचायत ने खुद फैसला लेने की बात कही थी किन्तु पुलिस बल की मौजूदगी में जींद के एक होटल में 6 फरवरी को नवीन और नीलम की शादी के बाद आखिरकार इस मामले में भी पंचायत को झुकना पड़ा।

कानून को ठेंगा दिखाती पंचायतें

ज्यादा समय नहीं बीता है, जब हरियाणा के झज्जर जिले में बेरी हलके के गांव ढ़राणा निवासी रविन्द्र और पानीपत के सिवाह गांव की शिल्पा की शादी तुड़वाने के लिए भी एक खाप पंचायत के तुगलकी फरमान के चलते खूब बवाल मचा था लेकिन कानून व्यवस्था पर हर बार जाति पंचायतों के फतवे हावी होते दिखाई दिए हैं। संभवतः इसी कारण हरियाणा में गोत्र विवाद को लेकर शादी तोड़ने, दोनों पक्ष के परिजनों का सामाजिक बहिष्कार करने, उन्हें गांव छोड़ने का फरमान सुनाने और यहां तक कि शादीशुदा जोड़ों की हत्या तक के तालिबानी फरमान बार-बार देखे जा रहे हैं किन्तु कानून इन पंचायतों के सामने हमेशा बौना साबित हुआ है। जातियों के आधार पर बनी ऐसी स्वयंभू खाप पंचायतों के ऐसे ही नादिरशाही फतवों के कारण अब तक कई हंसते-खेलते परिवार पूरी तरह बर्बाद हो चुके हैं। इस प्रकार के सामंती फैसले समाज के इन तथाकथित ठेकेदारों की संकीर्ण एवं पंगु मानसिकता को ही उजागर करते हैं और इस बात की ही गवाही देते हैं कि वास्तव में हम आधुनिक युग के बजाय उस मध्य युग की ओर लौट रहे हैं, जहां किसी भी मामले में सजा के रूप में ‘आंख का बदला आंख’ और ‘खून का बदला खून’ का बर्बर कानून हुआ करता था।

ऐसे कई मामले सामने आ चुके हैं, जिनमें इसी प्रकार के तानाशाहीपूर्ण फैसले लेकर पति-पत्नी को भाई-बहन बनने को बाध्य किया गया और खाप पंचायत का फैसला न मानने पर दम्पत्ति सहित उनके पूरे परिवार को गांव से बेदखल कर उनकी सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया गया। सरेआम कानून को ठेंगा दिखाते इस प्रकार के फैसले ऐसी पंचायतों की भूमिका के बारे में अब बहुत-कुछ सोचने-विचारने पर विवश करने लगे हैं। सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि हमारे संविधान में जब हर किसी को अपनी स्वतंत्रता से जीने का अधिकार दिया गया है तो गोत्र विवाद के नाम पर लोगों के जीने और मरने का फैसला करने वाली ये पंचायतें कौन होती हैं? क्यों नहीं प्रशासन ऐसे मामलों में अपनी सक्रिय भूमिका निभाता और अदालती निर्देशों के बाद भी ऐसे पंचायतियों के खिलाफ सख्त कदम उठाता?

रोहतक रेंज के आई.जी. वी. कामराजा कहते हैं कि इस प्रकार के संविधान विरोधी फैसले रोकने के लिए ऐसी पंचायतों में मौजूद रहने वाले जनप्रतिनिधियों व सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ कार्रवाई करने का प्रावधान है किन्तु शिकायतों व साक्ष्यों के अभाव में ऐसे लोग अक्सर बच जाते हैं। दूसरी ओर हरियाणा के डीजीपी (लॉ एंड ऑर्डर) वी. एन. राय का कहना है कि खाप पंचायतों के नाम पर फतवे जारी करना अब आसान नहीं होगा, ऐसा करने वालों पर जहां अपराधिक मामले दर्ज किए जाएंगे, वहीं ऐसी पंचायतों में शामिल होने वाले पंचों को अपने पदों से भी हाथ धोना पड़ सकता है। राय खुद मानते हैं कि खाप पंचायतें न्यायालय से ऊपर होकर असंवैधानिक फतवे जारी कर सामाजिक सौहार्द को खत्म करने पर तुली हैं।

क्यों नहीं होती पंचायतियों के खिलाफ कार्रवाई?

अदालतें बार-बार ऐसी पंचायतों के खिलाफ दिशा-निर्देश देती रही हैं, सरकार भी मानती रही है कि इन खाप पंचायतों का कोई लीगल स्टेट्स नहीं है, न ही पंचायती राज कानून के अधीन इनके फरमानों का कोई कानूनी आधार है, न सरकार इन्हें मान्य मानती है, फिर भी इन पंचायतों का इतना रूतबा है कि सत्ता में बैठे लोग ऐसी पंचायतों की गैरकानूनी गतिविधियों को नजरअंदाज करते हैं। एक ओर सरकार अदालत में शपथपत्र देकर कहती है कि ऐसी पंचायतों की कोई कानूनी वैधता नहीं है, वहीं मुख्यमंत्री फरमाते हैं कि ये पंचायतें सामाजिक तंत्र और मान्यताओं का अहम हिस्सा हैं। यह सरकार का निकम्मापन ही कहा जाएगा कि सब कुछ सार्वजनिक रूप से होने के बावजूद वह बेशर्मी से गर्दन झुकाये नजरअंदाज किए रहती है और ऐसे मामलों में अक्सर उसका यही बेशर्मी भरा जवाब रहता है कि जब उसके पास कोई लिखित शिकायत आएगी, वह कार्रवाई करेगी। यदि अदालतें ऐसे मामलों में खुद संज्ञान लेकर सरकार से जवाबतलबी कर सकती हैं तो फिर सरकार खुद ऐसे मामलों का संज्ञान लेते हुए ऐसी पंचायतों पर अंकुश लगाने की पहल क्यों नहीं कर सकती? हैरानी की बात तो यह है कि रह-रहकर हर कुछ माह बाद सामने आ रहे इस तरह के मामलों में प्रशासन ऐसी पंचायतों के सामने लाचार एवं बेबस मुद्रा में नजर आया है, जो किसी तरह ऐसे मामलों को रफा-दफा कराकर अपना पल्ला झाड़ने की ही कोशिश करता है। यही कारण है कि कानून की नजर में इन पंचायतों के गैरकानूनी होने के बावजूद गांव के लोगों में इनसे दहशत व्याप्त है और इसी कारण जातिगत पंचायतों द्वारा ऐसे तुगलकी फैसले लेने की एक परम्परा सी बनती जा रही है।

अहम सवाल यह है कि जब दो परिवारों को ही ऐसे विवाह पर कोई ऐतराज नहीं, दूल्हा-दुल्हन एक-दूसरे के साथ संतुष्ट हैं, फिर खाप पंचायतों को ऐसे संबंधों को लेकर तकलीफ क्यों होती है? जिन समुदायों, जातियों या गोत्रों का ये पंचायतें प्रतिनिधित्व करती हैं, जब उन्हीं समुदायों, जातियों या गोत्रों के लोग चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार जैसे गंभीर अपराध करते हैं तो ये पंचायतें न जाने कहां गुम हो जाती हैं लेकिन कौन किससे शादी कर रहा है, किस शादी को वैध माना जाए और किसे नहीं, ये सवाल इनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाते हैं।

युवाओं की सकारात्मक पहल

बहरहाल, ऐसी विकृत मानसिकता रखने वाले पंचायतियों और इन जाति पंचायतों के विरोध में अब समाज के प्रबुद्ध वर्ग को लामबंद होना होगा तथा खासकर युवाओं को इस दिशा में अपनी आवाज बुलंद करनी होगी। प्रगतिशील सोच वाले युवाओं को स्वस्थ समाज के निर्माण में अपनी सार्थक भूमिका का निर्वहन करते हुए दकियानूसी सोच वाले बुजुर्गों की मानसिकता में बदलाव लाने के प्रयास शुरू करने होंगे।

फिलहाल उठे गोत्र विवादों में जो सबसे सुखद और सराहनीय बात सामने आई है, वह है युवाओं की बदलती मानसिकता। ऐसा पहली बार हुआ है, जब ऐसे किसी गोत्र विवाद में उसी क्षेत्र के युवा एकजुट होकर पंचायत के अमानवीय एवं बर्बर फैसले के खिलाफ खड़े हुए हैं। खेड़ी गांव में हुई पंचायत के फैसले के अगले ही दिन सर्वखाप, सर्वजातीय महम चौबीसी युवा पंचायत ने खेड़ी में हुई पंचायत के फैसले की तीव्र भर्त्सना करते हुए पीड़ित परिवार को हरसंभव सहयोग देने का वादा किया था तथा पिता को मामा और दादा को नाना बना देने के पंचायत के फैसले को असहनीय बताते हुए इसे सामाजिक परम्परा के बजाय सामाजिक कलंक बताते हुए कहा था कि यदि जरूरत पड़ी तो युवा इसे लेकर बड़ा आन्दोलन करेंगे। उसके बाद दो खाप पंचायतें भी ऐसे तुगलकी फैसलों के खिलाफ खुलकर खड़ी हुई थी। इसे इस दिशा में एक सकारात्मक संकेत ही माना जाना चाहिए।

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