ब्रज और चौबों का लोकोत्सव कंस का मेला

आज कंस का मेला है। चौबों का परंपरागत परिवार और बगीची-अखाड़े इसके प्रमुख आयोजक हैं, इन्हें कंसटीले वाले कहते हैं। इसी नाम से मथुरा में कंस का अखाड़ा हुआ करता था। मैंने बचपन में वहां पर चौबों को खूब कसरत करते और कुश्तियों के मेले आयोजित करते देखा है।पहले चौबों को पहलवानी का खूब शौक होता था। मथुरा की वो शानदार लोक संस्कृति का हिस्सा रहा है। कंस के टीले पर एक जमाने में बड़ा ही शानदार अखाड़ा था ,और उस पर पखवाड़े में एकबार कुश्तियां होती थीं ,जिनमें जीतने वालों को शानदार इनाम भी मिलता था।इस अखाडे के एक तरफ अंतापाड़ा नाम का मोहल्ला है,दूसरी ओर जिला अस्पताल है। यह इलाका शहर के बाहर मुख्यबाजार में पड़ता है। अब मथुरा के चौबों में सालाना जलसे के रूप में कंस मेला ही बचा है।

एक जमाना था जब कंस के मेले के लिए चौबों में सुंदर से सुंदर लाठी खरीदने और पुरानी लाठियों को तेल पिलाने और साफ करके रखने की परंपरा थी, खासकर कंस मेले के मौके पर सैंकड़ों सुंदर लाठियों का प्रदर्शन देखने लायक होता था।प्रत्येक चौबे के हाथ में लाठी इस दिन शुभ मानी जाती थी। और कंस मेले के दिन बड़े पैमाने पर चौबे लाठियां लेकर निकलते भी थे।कंस वध करके कंस के अखाड़े से लौटते हुए चतुर्वेदी युवाओं के अनेक टोल हुआ करते थे और कई अखाड़े भी रहते थे, जिनमें पटेबाजी करते युवाओं के दल सड़कों पर अपनी कला का प्रदर्शन करते दिखते थे,एक समूह ऐसा भी होता था जिसके हाथ में तकरीबन 20 मीटर से ज्यादा लंबी बल्ली पर कंस का शिर हुआ करता है ,कंस के अखाड़े में कंस के धड़ का वध होता है, शिर बच जाता है ,उसे जुलूस की शक्ल में नाचते-गाते मंडलियों में परिक्रमा करते हुए कंसखार बाजार में लाकर चौबों के द्वारा लाठियों से मारकर चूर चूर किया जाता है।

यह मान्यता है कि कंस वध करने जब भगवान श्रीकृष्ण ने कंस के किले पर धावा बोला तो कंस भागकर कंस अखाडे में चला आया,वहां उसके पालतू 4 पहलवानों से भगवान और चौबों का युद्ध हुआ,ये पहलवान थे, सल,तोसल,चाणडूल,मांडूल इन पहलवानों को माकर जब भगवान ने कंस क खोज की तो पता चलाकि वो भागकर कंसखार इलाके में जाकर छिप गया है।यही वजह है कि कंस के शिर का वध लौटकर कंसखार में जाकर ही होता है और यह कार्य चौबों की मदद से होता है। आम धारणा है कि श्रीकृष्ण ने कंस को मारा था,लेकिन कंस वध में चौबों की महत्वपूर्ण भूमिका थी,इसकी ओर कभी लोगों का ध्यान नहीं जाता।

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आज के दिन कंस का भगवान श्रीकृष्ण ने वध किया था। यह धारणा है कि स्थानीयतौर पर मथुरा के चौबों ने इस वध में भगवान की मदद की थी। यही वजह है कि कंस जैसे जल्लाद राजा के मेले और उसके वध के आयोजन की परंपरा सैंकड़ों सालों से मथुरा के चौबों में चली आ रही है।गोपालजी मंदिर के गुरूजी के जिम्मे श्रीकृष्ण-बलराम को सजाकर तैयार करने की जिम्मेदारी हुआ करती थी।बाकी आयोजन को कंस अखाड़े के चौबे मिलकर तैयार करते थे। चौबों में एक जमाने में इस मेले के लिए नए कपड़े आदि खरीदने और नए वस्त्र पहनने की परंपरा थी। कंस के अखाड़े पर प्रति पखवाडे कुश्तियों के दंगल हुआ करते थे। इनमें मथुरा के विभिन्न अखाड़ों के पहलवानों के अलावा आसपास के इलाकों के गांवों से भी पहलवान आकर नियमित भाग लिया करते थे।

आज के दिन कंस का मेला शाम 5 बजे के आसपास आरंभ होता है। कंस का विशाल पुतला लेकर चौबे निकलते हैं। यह चौबों का लोकोत्सव है। मजेदार बात यह है कि मथुरा के चौबे ही सारे देश में कंस मेला का आयोजन करते हैं और यह सिर्फ मथुरा में होता है।यह मान्यता है कि राजा कंस का भगवान श्रीकृष्ण ने चौबों की मदद से वध किया था। यही वजह है कि चौबे ही इस मेले का आयोजन करते हैं। चतुर्वेदी सज-धजकर और हाथों में सुंदर लाठियां लेकर इस मेले में टोल बनाकर निकलते हैं।विश्राम घाट से यह मेला एक जुलूस के रूप में आरंभ होता है जिसमें कंस का विशालकाय पुतला होता है और लट्ठ लेकर चतुर्वेदियों के टोल उसके चारों ओर नाचते-गाते चलते हैं ,अंत में कंस के टीले पर ले जाकर कंस का लाठियों से मार-मारकर चौबे वध करते हैं।बाद में नाचते-गाते लौटते हैं। साथ में हाथी पर श्रीकृष्ण-बल्देव भी सजे हुए विराजमान रहते हैं।अंत में यह जुलूस विश्रामघाट पर कंस के अस्थि विसर्जन और भगवान की आरती के साथ सम्पन्न होता है।