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मीठी तुलसी से स्वरोजगार की मिठास

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ऊनाः स्वयं सहायता समूहों के तैयार उत्पादों को मार्केटिंग का मंच प्रदान करने के लिए आरंभ किए गए सोमभद्रा ब्रांड नेम में अब मीठी तुलसी अथवा स्टीविया का नाम भी जुड़ गया है। अब तक जिला ऊना के समूह सेवियां, पापड़, आचार तथा बांस के उत्पाद सोमभद्रा के तहत बेचते आ रहे हैं, लेकिन अब जिला प्रशासन ने स्टीविया को भी इस लिस्ट में जोड़ दिया है। 

ऊना वार्ड नंबर दो निवासी अमनदीप सिंह का परिवार काफी लंबे समय से प्राकृतिक खेती से जुड़ा हुआ है। कोरोना काल में वह अपने परिवार के साथ खेती में हाथ बटाने लगे तथा उन्होंने उद्यान विभाग के साथ सम्पर्क किया तथा स्टीविया नाम के पौधे की खेती आरंभ की। स्टीविया की खेती के लिए विभाग की तरफ से तकनीकी सहायता सहित पौधे उपलब्ध करवाने में समय-समय पर मदद प्रदान की जाती है, जिससे उनके प्रयास आज रंग ला रहे हैं।

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स्टीविया को बेचने की परेशानी खत्म करने के लिए जिला प्रशासन ने उन्हें अब सोमभद्रा ब्रांड नेम के तहत ला दिया है और उन्हें अपने उत्पाद की मार्केटिंग में भी आसानी हो रही है। 

चंडीगढ़ से स्नातक की पढ़ाई पूरी करने वाले जिला ऊना के अमनदीप बताते हैं “स्टीविया एक हर्ब यानी जड़ी-बूटी है, जो चीनी की तरह मीठी होती है। इसीलिए इसे मीठी तुलसी के नाम से भी जाना जाता है। स्टीविया की पत्तियां देखने में तुलसी की पत्तियों की तरह लगती हैं। स्टीविया की खेती आसानी से घर पर की जा सकती है। चाय व कॉफी को मीठा बनाने के लिए स्टीविया के सूखे पत्तों का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसकी पत्तियों में एंटीऑक्सीडेंट होते हैं और यह स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक है। इस औषधीय पौधे के उत्पाद की मार्केटिंग के लिए सोमभद्रा ब्रांड नेम के तहत लाया गया है और जिला प्रशासन स्टॉल लगवाकर मेरे उत्पाद को बेचने में भरपूर मदद दे रहा है, जिसके लिए मैं जिला प्रशासन का धन्यवाद व्यक्त करता हूं।”

स्टीविया डायबिटीज़ यानी मधुमेय के रोगियों के लिए काफी फायदेमंद है। स्टीविया में कैलोरी की मात्रा कम होती है तथा इसके सेवन से इंसुलिन की मात्रा पर भी किसी प्रकार का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। स्टीविया शुगर लेवल को कंट्रोल करने में मदद करता है और इसे चीनी के विकल्प के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। 

मनरेगा में एक लाख रुपए तक की सहायता

उपायुक्त ऊना राघव शर्मा ने कहा “स्टीविया की खेती कर रहे अमनदीप को ग्रामीण विकास विभाग की योजना राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन के तहत लाया गया है और मार्केंटिंग में भी उनकी मदद की जा रही है। जिला प्रशासन इस कार्य को आगे बढ़ाते हुए स्टीविया की खेती करने वाले एक अलग स्वयं सहायता समूह का गठन करने जा रहा है, ताकि अधिक से अधिक इस काम से जुड़ें और वह आत्मनिर्भर बन सकें। मनरेगा के तहत स्टीविया के पौधे लगाने को एक लाख रुपए तक की मदद दी जा सकती है। इसलिए जो भी युवा स्टीविया की खेती से जुड़ना चाहते हैं, वह जिला ग्रामीण विकास अधिकरण के कार्यालय में संपर्क कर सकते हैं।”

उत्तर भारत में कई स्थानों पर किसान स्टीविया की खेती करे हैं। ऐसे समय में जब डायबीटिज़ के मरीज बढ़ रहे हैं, तो इस पौधे की खेती काफी लाभदायक सिद्ध हो रही है। 

अंतर्राष्ट्रीय बाजार में काफी मांग

स्टेट मेडिसिनल प्लांट बोर्ड जिला ऊना के नोडल अधिकारी व वरिष्ठ आयुर्वेदिक डॉ. नरेश शर्मा ने बताया कि स्टीविया की खेती फरवरी और जुलाई माह में की जाती है तथा यह पौधा लगभग 5 वर्ष तक जीवित रहता है। हर 3 माह के बाद स्टीविया पौधे के पत्तों को तोड़ा जाता है और इन्हें सूखाकर बेचा जाता है। स्टीविया के पत्तों में ग्लाइकोसाइड की मात्रा 9-12 प्रतिशत होती है। उन्होंने बताया कि स्टीविया शुगर फ्री टेबलेट, मिठाई व अन्य पेय पदार्थों में इस्तेमाल किया जाता है व स्टीविया के पत्तों की मांग अंतर्राष्ट्रीय बाजार में भी काफी अच्छी है। भारतीय बाजार में स्टीविया के सूखे पत्ते 125-150 रुपए प्रति किलो के हिसाब से बिकते हैं। स्टीविया की खेती के लिए लगभग 40 हज़ार रूपये प्रति एकड़ की दर से लागत आती है तथा प्रतिवर्ष 3-3.5 लाख रूपये प्रतिवर्ष प्रति एकड़ के हिसाब से आय अर्जित की जा सकती है।