ज्वालामुखी: सरकारीकरण के बाद हिमाचल के मंदिरों के लिये सरकारों ने अपने आपको अहम फैसला लेने के बजाये वक्त निकालने की निति पर ही काम किया है। यही वजह है कि पिछले कार्यकाल के दौरान भाजपा सरकार में मंदिरों में सुधार लाने के मकसद से बनायी गई राणा काशमीर सिंह की अध्यक्षता वाली समिति की रिर्पोट आज भी धूल फांक रही है।
मंदिरों के लिये मौजूदा व्यवस्था दोषपूर्ण है। सरकारी दखल बढ़ता जा रहा है। मन्दिरों सरकारी नियंत्रण में तो हैं। प्रदेश भाषा विभाग के पास इनका जिम्मा है। लेकिन जिलाधीश के पास इनका नियंत्रण है। मन्दिर अधिकारी राजस्व महकमें से डैपूटेशन पर आये तहसीलदार हैं। इस त्रिकोणीय व्यवस्था से सुधार नहीं बिगाड़ हो रहा है।
गौरतलब है राणा समिति के बाद इस बार के सी शर्मा की अध्यक्षता में भी एक कमेटी बनी थी जिसका कार्यकाल पूरा हो चुका है। का भी यही हश्र हुआ। आज हालात यह हैं कि मंदिरों का रखरखाव सालों बाद भी उसी पुराने ढर्रे पर चल रहा है। हालांकि प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने अभी हाल ही में मंदिरों से डैपुटेशन पर आये राजस्व महकमें के तहसीलदारों को वापिस उनके महकमें में ही भेजने का एलान किया था। जिसका हर जगह स्वागत हो रहा है। राणा काशमीर सिंह समिति की सिफारिशों में अहम रोल अदा करने वाले डा अरूण चंदन जो कि उस समय समिति के सचिव थे बताते हैं कि सिफारिशों में अहम तौर पर मंदिरों से राजस्व महकमें के दखल को खत्म करने ही बात प्रमुख तौर पर थी। बकौल उनके मंदिर भाषा विभाग विभाग के आधीन आते हैं लिहाजा उनमें भाषा विभाग से ही लोग मंिदरं अधिकारी के तौर पर तैनात होने चाहियें। इससे मंदिरों का प्रबंधन बेहतर हो सकेगा।
राणा समिति ने अपनी सिफारिश में कहा है कि मंदरों में तहसीलदार स्तर के अधिकारी अपनी सेवायें बेहतर तरीके से नहीं दे पाये हैं। चूंकि तहसीलदार के पास मानव संसाधन का कोई तुर्जबा नहीं होता। काबिलेगौर है कि हिमाचल प्रदेश में छह बडे हिन्दू मंदिर प्रदेश सरकार के नियंत्रण में हैं। जिनमें ज्वालामुखी चिन्तपुर्णी बाबा बालक नाथ कांगडा चामुण्डा व शाहतलाई। जिनकी सालाना आमदन करोडों में है। अगर ज्वालामुखी को ही लें तो उस समय यहां करीब 308 मुलाजम थे। जिनकी तादाद अब बढने जा रही है। को संभालना आसान काम नहीं है। यही नहीं मंदिरों में चढने वाला चढावा भी कम नहीं है। कहा जा रहा है कि तहसीलदार का तो आधा समय इस चढावे को गिनने में ही चला जाता है। यही वजह है कि समिति ने राज्य सरकार से सिफारिश की थी कि मंदिरों में रिटायर्ड एच ए एस अधिकारी लगाये जायें जिनका सेवाकाल बेहतर रहा हो व वह लोग मूर्ति पूजा में विशवास रखते हों।
दरअसल सरकारीकरण के समय तहसीलदार नियुक्त करने के पीछे प्रमुख कारण यह था कि मंदिरों की जमीन का रखरखाव सही ढंग से हो पाये। व उसे अवैध कब्जों से मुक्त करा दिया जाये। हिमाचल प्रदेश के कांगडा चामुंडा व ज्वालामुखी मंदिरों की हजारों एकड जमीन पर आज भी लोग कुंडली मारे बैठे हैं। लेकिन मंदिर अधिकारी कुछ भी नहीं कर पाये हैं। अकेले डमटाल के राम गोपाल मंदिर की ही करीब पांच हजार कनाल जमीन है जो या तो आज मुजारों के पास है लोगों ने इस पर अवैध कब्जे कर रखे हैं। इसके एक बहुत बडे हिस्से पर तो स्टोन क्रशर चल रहे हैं। मंदर की ही कुछ जमीन गुरदासपुर में है। जिसे मंदिर अधिकारी की ही लापारवाही माना जा सकता है। यही हाल दूसरे मंदिरों का है।हालात तो यह हैं कि कई जगह व्यापक विरोध के बाद भी मंदिरों से तहसीलदार जाना नहीं चाहते।
समिति ने अपनी सिफारिश में साफ तौर पर इन जमीनों को छुडवाने की वकालत की थी। यही नहीं पौंग झील में जो मंदिर पानी में समा गये थे। उनका मुआवजा आज भी इस्तेमाल नहीं हो पाया है। उसे प्रदेश के छोटे मंदिरों के लिये देने की बात थी। ताकि वहां पुजा अर्चना आसान हो सके।
ब्राहम्ण सभा ने सरकारी नियंत्रण वाले मंदिरों के लिये अलग निति बनाने की मांग राज्य सरकार से की है। अखिल भारतीय ब्राहम्ण सभा के स्थानीय संयोजक वी के उपमन्यु ने प्रदेश के मुख्यमंत्री धूमल को लिखे पत्र में कहा हे कि मन्दिरों के लिये अलग निति बनने से न केवल समस्याओं में सुधार आयेगा बल्कि श्रद्घालुओं को भी राहत मिलेगी। उन्होंने कहा की मौजूदा व्यवस्था दोषपूर्ण है। सरकारी दखल बढ़ता जा रहा है। मन्दिरों सरकारी नियंत्रण में तो हैं। प्रदेश भाषा विभाग के पास इनका जिम्मा है। लेकिन जिलाधीश के पास इनका नियंत्रण है। मन्दिर अधिकारी राजस्व महकमें से डैपूटेशन पर आये तहसीलदार हैं। इस त्रिकोणीय व्यवस्था से सुधार नहीं बिगाड़ हो रहा है। मंदिरों को एक ही महकमें के आधीन लाया जाना चाहिये।