सोलन : हम अपने निजी स्वार्थों में इतने अंधे हो चुके हैं कि प्रकृति को ताक पर रखकर पहाड़ी राज्य हिमाचल में निर्माण करने लगे हैं। हमको बस जमीन चाहिए, फिर नहीं देखते की यह धंसने वाली है,पक्की या कच्ची बस मंजिलों पर मंजिलें चढ़ा देते हैं। ऐसे ही सड़कों का निर्माण किया जा रहा है। नतीजतन कोई भी सड़क अब एक साल से अधिक नहीं टिक पाती। प्रकृति के साथ मिलकर नहीं चलेंगे तो फिर नुकसान तो उठाना पड़ेगा ही।
हिमाचल में आई जल प्रलय इसका जीवंत प्रमाण है। आजकल पूरा हिमाचल जल प्रलय का सामना कर रहा है। इस विषय पर हमने हिमालय पर दशकों से काम कर रहे भू-गर्भ वैज्ञानिक डॉ. रितेश आर्य से बातचीत की। उन्होंने साफ कहा कि सही जगह का चयन न करके मकान बनाओगे या नदी नालों को डंपिंग साइट बनाना. मलबे के ढेर पर घर बनेंगे तो हमें हर बार इस तरह के जानमाल का नुकसान तो होगा ही। पानी तो अपना रास्ता लेगा ही।
डॉ.आर्य ने कहा कि देश आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। भारत को आजादी मिले 75 साल हो गए हैं। हम सस्टेनेबल डवलपमेंट की बात करते हैं। डॉ आर्य ने बताया कि पूरे हिमाचल प्रदेश में जिलावार हुए नुकसान का एक सर्वे किया जाए कि, उस सर्वे के लिए जो मकान या अन्य इंफ्रास्टक्चर इस बरसात में बहा या नुकसान हुआ है। उसे चार भागों में विभाजित कर लें। 25 साल के भीतर बना मकान, 50 साल के भीत बना मकान और 75 साल या उससे अधिक मकान मकान या पुल।
आप देखोगे कि इसमें 25 साल के भीतर बने मकान, पुल सर्वाधिक होंगे। इससे स्वत: ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारा विकास किस दिशा में हो रहा है। अब दूसरी ओर कालका-शिमला रेलवे लाइन, उस पर बने पुल, वहां पानी को चैनेलाइज करने का तरीका हमारे सीखने की जरूरत है। साथ ही सड़क, भवन, पुल निर्माण में जिम्मेदारी फिक्स होनी चाहिए। हमें अपने बुजुर्गों की तरह प्रकृति के साथ मिलकर विकास के रथ को आगे बढ़ाना चाहिए, तभी हिमाचल को आपदा शब्द से दूर रखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि सैंकड़ों साल पुराने मकान आज भी खड़े हैं और गलत जगह बने मकान ताश के पत्तों की तरह ढह गए हैं। हिमाचल प्रदेश को अन्य अधिकारियों की तर्ज पर भू-वैज्ञानिकों की भी बेहद जरूरत है। यदि पहाड़ों को बचाना है तो पहाड़ों में रहने वाले लोगों को ही भू-वैज्ञानिक बनाना होगा। यहां के लोग बखूबी जानते हैं कि पहाड़ों में कैसे रहा जाता है।
प्रकृति के विपरीत कार्य करेंगे तो खामियाजा भी भुगतना होगा। कालका-शिमला फोरलेन का निर्माण का उदाहरण आपके समक्ष है। यह अभी ठीक प्रकार से शुरू भी नहीं हुआ कि बरसात इसको लील रही है। यदि ऐसा हमारा सिस्टम पहले होता तो 300 या 500 साल पुराने भवनों को हम कैसे देख सकते थे। अब तो एक सड़क यदि एक साल भी काट जाए तो बड़ी गनीमत है। प्रकृति तो अपना करेगी ही। उन्होंने कहा कि फोरलेन के चलते सोलन जिला में धर्मपुर-कसौली मार्ग खत्म हो रहा है। पाइनग्रोव स्कूल का खेल मैदान कभी भी फोरलेन में आ सकता है। परवाणू में कौशल्या नदी अपना कहर बरपा रही है। यहां लोगों ने मलबे पर बहुमंजिला इमारतें बना दी है।
आज बनने वाली सड़क व पुल का भरोसा नहीं किया जा सकता, कब ढह जाए। हमें निर्माण कार्य से जुड़े लोगों की जिम्मेवारियां तय करनी चाहिए । साथ ही पहले ही ऐसे स्थानों का चयन करना चाहिए, जहां मकान बन सकें। गांव में पुराने मकान देखो वह पक्की जगह में बनते थे, उनके लिए जिस भूमि का चयन किया जाता था, उसे कुछ लोग स्थानीय भाषा में तली कहते हैं। हमारे बुजुर्गों के पास भले ही डिग्री न थी, लेकिन वह आज लोगों से ज्यादा शिक्षित थे। उनके मकान आज भी मजबूती से खड़े हैं। कुछ स्थानों पर कृषि भूमि पर कर्मिशियल कॉम्पलैक्स, औद्योगिक यूनिट बनाई जा रही है। उन्होंने कहा कि नदी-नालों के समीप खाली पड़ी भूमि पर पार्किंग बना देते हैं, जब पानी तेज गति से आता है तो गाडिय़ों को अपने साथ बहा ले जाता है।
यह हम सभी के लिए सबक है, कि हमें प्रकृति के साथ मिलकर अपना विकास करना चाहिए। डॉ. आर्य ने कहा कि सोलन के शामती में पहाड़ पर आई दरार और गिरे मकानों के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि वह खुद यहां का दौरा करेंगे और इसके बाद ही इसके बारे में विस्तार से जानकारी देंगे।