चूड़धार चोटी पर 22 वर्षों बाद शिरगुल महाराज के मंदिर में ऐतिहासिक कुरुड़ स्थापित

नाहन : चूड़धार चोटी पर शिरगुल महाराज के प्राचीन मंदिर में 22 वर्षों के बाद हुए इस ऐतिहासिक और पवित्र आयोजन में कुरुड़ की स्थापना, हिमाचल प्रदेश के शिमला और सिरमौर जिलों के धार्मिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ। शिरगुल महाराज, जिन्हें भगवान शिव का अवतार माना जाता है, इन क्षेत्रों के आराध्य देवता हैं, और उनकी पूजा विशेष रूप से इन जिलों में गहरी आस्था और श्रद्धा से की जाती है।

कुरुड़ स्थापना का महत्व:
कुरुड़, एक प्रकार का धार्मिक प्रतीक या देवता का मुकुट है, जो मंदिर के शिखर पर स्थापित किया जाता है। यह स्थापना किसी भी देव प्रतिमा या मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की अंतिम और अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया मानी जाती है। जब कुरुड़ को मंदिर के शीर्ष पर स्थापित किया जाता है, तो मंदिर का कार्य पूर्ण माना जाता है। इसी धार्मिक परंपरा का निर्वहन चूड़धार के इस पवित्र स्थल पर किया गया। चूड़धार चोटी, जो समुद्र तल से 12,000 फीट से भी अधिक ऊंचाई पर स्थित है, इस आयोजन का साक्षी बनी, और हजारों श्रद्धालुओं ने इस अद्वितीय क्षण को देखा।

churdhar

आयोजन की तैयारी और श्रद्धालुओं का उत्साह:
इस महायज्ञ और कुरुड़ स्थापना के लिए व्यापक तैयारियां की गई थीं। चूडेश्वर सेवा समिति और स्थानीय प्रशासन ने मिलकर लगभग 25,000 से 30,000 श्रद्धालुओं के लिए ठहरने और भोजन की व्यवस्था की। कालाबाग में 1000 से अधिक टैंट लगाए गए थे, जहाँ श्रद्धालुओं ने ठंड और बर्फीली हवाओं के बीच रात बिताई।

इस ऐतिहासिक आयोजन के दौरान, श्रद्धालुओं ने रात भर देवता की भक्ति में डूबकर धार्मिक गीतों और पारंपरिक नृत्यों का आनंद लिया। सर्द मौसम और पहाड़ी हवाओं के बीच, लोगों ने आग जलाकर खुद को गर्म रखा और साथ ही साथ लोकल गीतों और नृत्यों में भाग लिया। पारंपरिक लोकगीत, जो देवताओं की महिमा और स्थानीय वीरगाथाओं को बयां करते हैं, गाए गए, और लोग उत्साह के साथ नृत्य करते रहे।
इस रात ने एक ओर जहां श्रद्धालुओं की भक्ति को और मजबूत किया, वहीं दूसरी ओर हिमाचली संस्कृति की समृद्धि और लोक परंपराओं की गूंज सुनाई दी। इसके साथ ही, चौपाल, कुपवी, नेरवा और हामल आदि पंचायतों के लोग आयोजन की तैयारी और सफल संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे।

11 अक्तूबर की सुबह से ही श्रद्धालुओं का आना जारी था। श्रद्धालु, देव पालकियों के साथ घने जंगलों से होते हुए चूड़धार की ओर बढ़ रहे थे। देवता के प्रति गहरी आस्था और भक्ति का प्रदर्शन श्रद्धालुओं ने देव पालकियों और कुरुड़ की झलक पाने के लिए किया, जो कालाबाग में रखी गई थीं। जैसे ही पालकियां चोटी पर पहुंचीं, श्रद्धालुओं ने पालकियों के निर्देशों का पालन करते हुए सम्मानपूर्वक अपने स्थानों पर बैठ गए।

धार्मिक अनुष्ठान और कुरुड़ की स्थापना:
आयोजन को लेकर समय सुबह 11:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे के बीच निर्धारित किया गया था, लेकिन ऐसा माना जाता है कि देवता स्वयं शुभ मुहूर्त तय करते हैं। अंततः, दोपहर 12:56 बजे कुरुड़ की स्थापना का कार्य शुरू हुआ। पहले से तैयार किए गए कुरुड़ को श्रद्धालुओं द्वारा हाथोंहाथ उठाकर मंदिर के शिखर तक पहुंचाया गया। इस दौरान शिरगुल महाराज के जयकारों से चोटी की वादियां गूंज उठीं, और पूरा माहौल भक्तिमय हो गया।

यह महायज्ञ शांति और धैर्य से भरा हुआ था, जिसे ‘शांत महायज्ञ’ कहा गया। इसके साक्षी बने हजारों श्रद्धालु न केवल इस दिव्य अनुष्ठान का हिस्सा बने, बल्कि उन्होंने शिरगुल महाराज की असीम शक्ति का अनुभव भी किया।

चूड़धार का विहंगम दृश्य और स्थानीय सहभागिता:
चूड़धार चोटी से चारों ओर का दृश्य बेहद अद्भुत और दैवीय था। पहाड़ियों के बीच फैली धुंध और बादलों के बीच स्थित मंदिर ने इस आयोजन को और भी भव्य बना दिया। चारों ओर बैठे श्रद्धालुओं ने पहाड़ों के इस प्राकृतिक सौंदर्य और धार्मिक माहौल का आनंद लिया। शिरगुल महाराज के प्रति श्रद्धा और आस्था का यह प्रदर्शन क्षेत्र की धार्मिक परंपराओं का सम्मान था।

आयोजन की सफलताएँ:
इस ऐतिहासिक धार्मिक आयोजन को सफल बनाने में चूडेश्वर सेवा समिति और स्थानीय प्रशासन की सक्रियता काबिले तारीफ थी। श्रद्धालुओं के रहने, खाने-पीने की व्यवस्थाओं से लेकर चोटी तक पहुँचने के रास्तों को सुरक्षित बनाने तक, हर पहलू का ध्यान रखा गया। चोटी की दुर्गम ऊँचाई और कठिन रास्तों के बावजूद श्रद्धालुओं का उत्साह देखने लायक था, जो यह साबित करता है कि आस्था के सामने कठिनाइयाँ कोई मायने नहीं रखतीं।

यह आयोजन शिरगुल महाराज की शक्ति, देवभूमि की परंपराओं और स्थानीय समाज की एकजुटता का प्रतीक है।