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    Home»हिमाचल»सोलन»मस्कूलर डिस्ट्रॉफी नहीं रोक पाई शैलेष को DRDO के वरिष्ठ वैज्ञानिक बने
    सोलन

    मस्कूलर डिस्ट्रॉफी नहीं रोक पाई शैलेष को DRDO के वरिष्ठ वैज्ञानिक बने

    संवाददाताBy संवाददातासितम्बर 30, 20237 Mins Read
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    सोलन: डी.आर.डी.ओ. दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक शैलेष कुमार रॉय का संपूर्ण जीवन का संघर्ष भरा रहा है, लेकिन वो भी कहां पीछे हटने वाले थे। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में बुलंद हौसलों से सफलता की वो ईबारत लिखी है, जो हम सभी के लिए प्रेरणा है।  मस्कूलर डिस्ट्रॉफी से पीडि़त शैलेष कुमार दो सप्ताह के लिए सोलन के मानव मंदिर में अपने उपचार के लिए आए हैं। यह देश का एकमात्र संस्थान है, जहां मस्कूलर डिस्ट्रॉफी के ग्रस्त लोगों का फीजियोथैरेपी, हाइड्रोथैरेपी व अन्य माध्यमों से उपचार किया जाता है। यहां उन्होंने अपने जीवन के अनछुए पहेलुओं पर विस्तार से चर्चा की।

     क्या है मस्कूलर डिस्ट्राफी

    मस्कूलर डिस्ट्रॉफी एक ऐसा रोग जो निरंतर बढऩे वाला मांपेशियों का अनुवांशिक रोग है। इससे रोगी की शारीरिक शक्ति धीरे-धीरे कमजोर पड़ जाती है और वह चलने फिरने लायक नहीं रहता। कुछ समय बाद में वह सभी कार्यों के लिए दूसरों पर निर्भर हो जाता है। शैलेष कुमार का कहना है कि अभिभावक अपने मस्कूलर डिस्ट्रॉफी से ग्रस्त बच्चे को लेकर परेशान न हों। उन्हें कमरे में बंद न करें, बाहर निकालें क्योंकि वह स्पेशल है। अच्छी शिक्षा दें। जिंदगी में निराश न हो, भगवान है और वह सुनता भी है।

     जन्म एवं शिक्षा

     शैलेष कुमार का जन्म बिहार के छपरा जिला के एक छोटे से गांव में मकेर में हरेश्वर प्रसाद रॉय और सुशीला रॉय के घर 23 अप्रैल 1978 को  किसान परिवार में हुआ। जन्म के बाद वह सामान्य थे। पिता ने गांव के ही राजेंद्र विद्यामंदिर में उनका दाखिला करवाया। पढऩे में उनकी रूची थी। जब वह 8-9 साल के थे तो उन्हें चलने-फिरने में हल्की दिक्कत महरूस होने लगी। वह चलते- चलते गिर जाते थे।  स्कूल में जब वह छटी कक्षा में पढ़ते थे तो स्कूल में  400मीटर दौड़ प्रतियोगिता में भाग लिया तो वह दौड़ नहीं पाए और सभी प्रतिभागियों में वह सबसे पीछे रहे। इस दौरान उनके सभी सहपाठी उन पर हंसे और वह रोने लगे कि ऐसा क्यों हुआ। उनके ही एक अध्यापक ने उनसे कहा कि आप ऐसा काम करो, कि आप इन हंसने वाले बच्चों में सबसे आगे हों। यह वाक्य  उनके लिए उत्साहवर्धक रहे और उन्होंने मन लगाकर पढ़ाई करने का फैसला लिया।

    जब उनकी उम्र 10 साल थी तो उन्हें पता चला कि उन्हें डूसैन मस्कूलर डिस्ट्रॉफी है। चिकित्सकों ने उनके पिता को बताया कि इसकी उम्र 15 वर्ष है। इसका कोई फ्यूचर नहीं है और न ही लाइफ। इससे माता-पिता का हौसला भी पस्त हो गया। धीरे-धीरे चलकर वह स्कूल जाते थे। यह हाई स्कूल होने के कारण उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा  अच्छे नंबरों से पास की। पूरे जिला में उनका 10 वां रैंक आया। चलने-फिरने व सीढिय़ां चढऩे  में दिक्कत तो थी ही। पिता ने भी बेटे की आगे की पढ़ाई न करवाने का निर्णय लिया। जमा एक व दो की पढ़ाई के लिए उन्हें गांव के  40 किलो मीटर दूर छपरा जाना था।

     पढ़ाई के लिए पिता से लड़ाई…

    पिता नहीं चाहते थे कि वह आगे पढ़े, क्योंकि डाक्टरों ने कहा था कि इस बीमारी के कारण न लाइफ है और न कोई क्यूचर तो क्यों पढ़ाई करें। इस बात पर पिता- पुत्र की ठन गई और शैलेष ने अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देकर शहर की ओर अपना रूख कर लिया। सपना था  इंजीनियर बनने का। गणित उनका प्रिय विषय था और अब भी है। जैसे कोई संगीत का आनंद उठाता है, वैसे ही शैलेष मैथ के जटिल से जटिल प्रश्नों को हल करने का आनंद उठाते हैं। वह वहां एक कोचिंग सेंटर में गए और अपनी सारी बात बताई। साथ ही मैथ पढ़ाने की इच्छा भी जाहिर की। बालक की प्रतिभा को देखते हुए, कोचिंग सेंटर ने उन्हें 1500 रुपए महीना देने की बात कही। 250 रुपए का कमरा किराये पर लिया और छपरा में रहने लगे। खुद स्कूल में नॉन मेडिकल में अपना दाखिला करवाया। अपनी मेहनत के बूते पढ़ाई शुरू की। 1995-96 में उन्होंने इंजीनियरिंग की परीक्षा में चौथा रैंक हासिल किया। इससे उन्हें 32 हजार रुपए का वार्षिक स्कॉलरशिप मिला, जबकि उनका वार्षिक खर्च 28000 था। उन्होंने स्कॉलरशिप के बूते इलैक्ट्रॉनिक्स में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। इंजीनियरिंग के बाद उन्होंने गेट की तैयारी की। वर्ष 2000 में उन्होंने 99.96 परसैंटाइल के साथ गेट की परीक्षा क्लीयर की। उनका चयन आईआईटी दिल्ली में हुआ। यहां भी उनकी पढ़ाई स्कॉलरशिप से चली। इसी दौरान उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति व देश के महान वैज्ञानिक डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम को सुना और डीआरडीओ में नौकरी करने का मन बना लिया।

    एक साथ इन बड़े संस्थानों में हुआ था चयन

      आईआईटी से पढ़ाई पूरी होने के बाद उनका चयन एनटीपीसी, ओएनजीसी, आईओसी और डीआरडीओ में हुआ। उन्होंने डीआरडीओ में जाने का मन बना लिया। यहां भी उनके लिए राह आसान नहीं थी, लेकिन वो हार मानना तो जानते ही नहीं। बहुत समस्याओं का सामना करने के बाद उन्हें यहां जॉब मिल गई। डीआरडीओ में शोध के दौरान वैज्ञानिकों को कोई मैथ की समस्या थी, जो पिछले 8 माह से चल रही थी, जिससे उनका शोध कार्य रूका था। हालांकि वह इलैक्ट्रॉनिक्स के  वैज्ञानिक थे, लेकिन मैथ में उनकी रूची को देखते हुए उन्हें यह काम दिया गया। उन्होंने इस समस्या को हल निकाल दिया और पूरे डीआरडीओ में उनके  इस कार्य की भूरी-भूरी प्रशंसा हुई। सब अब शैलेष को जानने लगे।

    एफ ग्रेड के वैज्ञानिक है शैलेष

     शैलेष डीआरडीओ में एफ ग्रेड के वैज्ञानिक हैं और अभी 16 वर्ष की जॉब उनकी शेष हैं। यहां सबसे हाई पोस्ट वैज्ञानि ग्रेड- एच है और वह उससे सिफज्ञ दो प्रमोशन पीछे हैं। अभी करीब डेढ़ दशक की जॉब बाकी है।  पता चला उन्हें बेकर मस्कूलर डिस्ट्रॉफी है। इससे धीरे-धीरे शरीर के सारे अंग काम करना बंद कर देते हैं। उन्हें व्हीलचेयर पर आने की सलाह दी गई। कुछ दिन घर में पड़े रहने के बाद खुद को मजबूत किया और बाहर निकल कर चलना शुरू किया।  पहले दिन 80 मीटर फिर 100 मीटर और धीरे-धीरे वह पांच किलोमीटर तक चलना शुरू हो गए। इससे उनका 90 किलोग्राम का भार भी कम होकर 75 हो गया। वह दिल्ली मैट्रों में सफर करने लगे। मैट्रो स्टेशन से उनका ऑफिस करीब 2 किलोमीटर है। वह पैदल चलकर ऑफिस पहुंचने लगे। वह तिमारपुर में रहते थे और उनका ऑफिस नोर्थ कैंपस में था।

    2013-14 में उन्होंने इस बीमारी पर विजय पाने के लिए फीजियो थैरेपी शुरू की। वह 8 घंटे ऑफिस और 4 घंटे फीजियो थैरेपी करते थे। संडे को पूरा दिन आराम करते थे।

    ये हैं शैलेष का परिवार

     शैलेष कुमार रॉय का विवाह 2007 में नागपुर निवासी संगीता के साथ हुआ। उनकी दो बेटियां हैं। बड़ी बेटी  प्रत्यूषा रॉय 14 साल और छोटी बेटी अविका रॉय है।

     जब पहली बार डर उन पर हॉवी हुआ

     शैलेष कुमार बताते हैं कि 2016 में वह घर में ही गिर गए और टाइल में उनका सिर बुरी तरह लगा। वह 6 से 8 माह तक घर में ही बैठे रहे। उन्हें पहली बार डर का अहसास हुआ। उनके भीतर चलने का मनोवैज्ञानिक दबाव बन गया।

    वर्ष 2018 से उनके शरीर के उपरी भागों में समस्या शुरू हो गई। अगले ही साल उनको चेयर से उठने में परेशानी होने लगी। वर्ष 2021 में उन्हें कोविड हो गया और वह 25 दिन ऑक्सीजन पर रहे।  इससे उनको काफी कमजोरी महसूस होने लगी।  अब आलम यह हो गया कि गिलास उठाने में परेशानी होने लगी।

    सोलन आकर हुआ यू टर्न

     देश में मस्कूलर डिस्ट्रॉफी से ग्रस्त लोगों के लिए सोलन स्थित मानव मंदिर एक मात्र ऐसा आवासीय सेंटर है, जिसमें मस्कूलर डिस्ट्रॉफी से ग्रस्त लोगों का फीजियोथैरेपी, हाईड्रोथैरेपी, डीएनए जांच, मेडिकल चैकअप, डेंटल चैकअप, नियमित आहार प्रबंधन, ध्यान साधना, योग प्राणायाम, काउंसलिंग और मनोरंजक गतिविधियों से रोगियों का उपचार किया जाता है। उनकी पत्नी ने आईएमडीआरसी सेंटर सोलन में प्रधान संजना गोयल और महासचिव विपुल गोयल से बात और सोलन आ गए। बात जून 2022 की है, जब वह सोलन आए पहले दो दिन परेशान रहा। उन्होंने देखा कि वह परेशान है और यहां म्यूजिक बजता है। उनकी काउंसलिंग हुई। यहां के फीजियोथैपिस्ट की बदौलत वह  एक साल तीन माह बाद 4 कदम चल पाए। यहां की सेवा कार्य से वह बहुत प्रसन्न हुए। फिर स्टिक लेकर चलने लगा। यहां से उनका मोराल हाई हुआ और खुद के भीतर भी विश्वास पैदा हुआ। इस बार वो दो सप्ताह तक सोलन में रहेंगे।

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