नई दिल्ली: मध्यप्रदेश की चंबल घाटी का नाम सुनते ही आज भी रोंगटे खड़े हो जाते थे। एक समय था, जब पूरे चंबल क्षेत्र में डाकुओं का ही बोलबाला होता था। यहां के डाकुओं, जिन्हें बागी भी कहा जाता था, को समाज की मुख्यधारा से जोडऩे में गांधीवादी समाज सुधारक डॉ. एस.एन. सुब्बा राव (भाई जी) की भूमिका अहम रही। उनके प्रयासों से 654 चंबल के बागियों ने आत्मसमर्पण किया और समाज की मुख्यधारा में जुड़ गए।

उस समय के बिरले ही बागी जिंदा हैं। इनमें से एक बागी है 83 वर्षीय बहादुर सिंह, जो दुर्जन से सज्जन बने। बहादुर से जब यह पूछा कि आपने कितने लोगों को मारा है तो वह तपाक से बोलते हैं, आपने अब तक जीवन में कितनी रोटी खाई ? मैंने कहा मैंने कोई गिनती नहीं की, तो वह कहते हैं कि मैंने कितने लोगों को मारा है, मेरे पास भी इसकी कोई गिनती नहीं। 83 वर्षीय बहादुर सिंह ने आज के दिन 654 डाकुओं के साथ आत्मसमर्पण किया था।
अब बहादुर सिंह सप्ताह में एक दिन अपने घर जाते हैं और 6 दिन डॉ. सुब्बा राव के मुरैना स्थित जौहरा आश्रम में अपनी सेवाएं देते हैं। वह अपना जीवन समाजसेवा में बिताते हैं। उन्होंने वरिष्ठ पत्रकार यशपाल कपूर से बातचीत में अपने जीवन के बारे में विस्तार से जानकारी दी।
आर्मी से छुट्टी आया और थाम ली बंदूक, बन गया डाकू
बहादुर सिंह के डाकू बनने की कहानी भी कम रोचक नहीं है। मध्य प्रदेश के मुरैना के समीप रिजोनी गांव की तहसील कैलारश में पिता चैंऊ के घर जन्में बहादुर सिंह के बाल्यकाल में ही माता-पिता दोनों का देहांत हो गया था। उन्हें तो अपने माता-पिता का चेहरा तक भी याद नहीं। बड़ा भाई भगवान लाल और छोटी बहन मिती। न तन पर कपड़ा, न पेट के लिए रोटी। बचपन अभाव में बीता। गांव के कुछ लोग दयावश उन्हें खाना खिला देते थे, कि बिना मां-बाप के बच्चे हैं।
बहादुर सिंह ने जैसे तैसे 5वीं पास की। चाचा का लडक़ा था पत्तु, जो उस समय गांव का डान था और उनकी करीब 110 बीघा जमीन उसने हड़प ली। तीन भाई-बहन दाने-दाने को मोहताज थे। उनके साथ आए दिन मारपीट होती थी। बात 1962 की है। भारत-चीन युद्ध शुरू हो गया था। वह भी 17 साल का हो गया था और एक आर्मी ऑफिसर सरदार जी के घर पर काम करता था, जहां 50 पैसे दिहाड़ी मिलती थी। उन्होंने ही बहादुर सिंह को आर्मी में भर्ती करवा दिया।

आर्मी की ट्रैनिंग पूरी करने के बाद उन्हें छुट्टी पर घर भेजा, कि घर में मिलकर आओ फिर तुम्हारी नई जगह पोस्टिंग होगी। घर आते ही देखा तो घर की स्थिति पहले से भी खराब थी, बड़ा भाई डर के साये में जी रहा था। घर आते ही चाचा के बेटे पत्तु ने उनके साथ मारपीट की। उनकी बहन की शादी 20 हजार रुपए लेकर ऐसे व्यक्ति से करवा दी, जिसकी पत्नी का निधन हो चुका था। इससे उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था और गांव के लोग भी यह कहते थे कि बच्चों तुम यहां सुरक्षित नहीं। तुम या तो यहां से चले जाओ या फिर बागी बन जाओ और इसको मार दो।
दो-चार दिन घर पर रहने के बाद बागी बनने का मन बना लिया और घर से चंबल की तरफ निकल पड़ा। उस समय चंबल घाटी में खूब मार-धाड़ चल रही थी। वहां भी चार-पांच माह ट्रैनिंग ली और बंदूक थाम ली और सबसे पहले अपने चाचा के बेटे को सबक सिखाने के लिए निकल पड़े। हम चार-पांच लोग चंबल गांव की ओर निकल पड़े।
गांव में पहले से ही सी.आई.डी. लगाई थी कि पत्तु कहां है। सी.आई.डी. से पूरी जानकारी मिल जाने के बाद हम शाम 6 बजे गांव में पहुंचे और पत्तु को घेर लिया। वह मौत को करीब देख गिड़गिड़ाने लगा, माफी मांगने लगा। बहादुर सिंह की जमीन वापिस करने की बात भी कहने लगा, लेकिन इसके लिए बहुत देर हो चुकी थी। बहादुर सिंह ने अपनी टी.एम.सी. गन से 28 गोलियां पत्तु के सीने में उतार दी और फिर चंबल की ओर निकल गए। हत्या का पुलिस केस बना।
आसपास के गांव में पत्तु की दहशत थी, तो किसी ने भी पुलिस को नाम नहीं बताया, लेकिन सबको पता था कि यह काम बहादुर सिंह ने किया और अपना इंतकाम लिया। बहादुर सिंह बताते हैं कि माधो सिंह और हर विलास उनकी गैंग के लीडर थे। चंबल घाटी में डाकुओं का बोलबाला था।
कैसे बने दुर्जन से सज्जन
बात 1968-69 की है। गांधीवादी समाजसेवी डॉ. एस.एन. सुब्बा राव ने चंबल क्षेत्र की हालत देखी और उन्हें इससे दुख हुआ कि हमारी युवा पीढ़ी किस ओर जा रही है। चंबल क्षेत्र को उन्होंनेे अपनी कर्मभूमि बनाने का फैसला लिया। उन्होंने चंबल के जौहरा में अपना एक आश्रम खोला और हिंसा को खत्म करने और लोगों को अहिंसा के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया, लेकिन यह काम आसान नहीं था। बहादुर सिंह के मुताबिक विनोबा जी और जय प्रकाश नारायण ने भी 1960 में बागियों का आत्मसमर्पण करवाया था, लेकिन वह सभी जेल में पड़े थे।
जयप्रकाश, विनोबा और डॉ. सुब्बा राव हमारे गैंग लीडर माधो सिंह से मिले। माधो सिंह उनसे अपना नाम बदलकर राम सिंह के नाम से बातचीत करता रहा। वह कहता था कि मैं जंगल में ठेकेदार आखू के लिए काम करता हूं और बागी मेरे संपर्क में है। उस समय उनके क्षेत्र के रामचंद्र मिश्र विधायक थे। वह लोग ऊंट पर बैठकर जंगल पहुंचे।
डॉ. सुब्बा राव ने चंबल के जंगल में बागियों को भजन सुनाया आया हूं दरबार तुम्हारे…। इसके बाद उन्होंने बागियों को हिंसा का मार्ग छोडऩे की अपील की। साथ ही आश्वासन दिया कि वह मध्यप्रदेश के तत्कालीन सी.एम. प्रकाश चंद सेठी, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और जयप्रकाश जी से बात कर ली है।
आत्मसमर्पण करने वाले बागियों को 15-15 एकड़ जमीन मिलेगी, हथकड़ी नहीं लगेगी और उनके बच्चों की शिक्षा-दीक्षा की व्यवस्था भी की जाएगी। इसी दौरान राम सिंह का भेद खुल गया और पता चला यह तो डाकू माधो सिंह है और इस पर राजस्थान सरकार और मध्यप्रदेश सरकार ने डेढ़- डेढ़ लाख का ईनाम रखा है। चंबल के दूसरे खुंखार डाकू थे मोहर सिंह और माखन सिंह उनकी गैंग दूसरी थी।
कब किया समपर्ण
14 अप्रैल 1972 को मोहर सिंह, सर्व सिंह आदि ने आत्मसमर्पण किया और 16 अप्रैल को माधो सिंह, हर विलास, माखन सिंह, स्वर्ण सिंह औदि 250 लोगों ने एक साथ आत्मसमपर्ण किया। इनमें बहादुर सिंह भी शामिल थे। कुल मिलाकर अलग-अलग चरणों में हुआ। डॉ. एस.एन. सुब्बाराव जी के प्रयासों से 654 लोगों ने आत्मसमर्पण किया। इसके बाद सभी बागियों को ग्वालियर जेल ले जाया गया। इस दौरान एम.पी. के सी.एम. प्रकाशचंद सेठी, जयप्रकाश और डॉ. एस.एन. सुब्बाराव इनके साथ रहे।
सीएम के आदेश के बाद उन्हें ग्वालियर जेल में बी क्लास में रखा गया। उनके खाने-पीने की अच्छी व्यवस्था थी। डॉ. सुब्बा राव (भाई जी) जेल में उनसे रोज मिलते थे. उनकी मीटिंग लेते थे। फिर उन्हें पांच साल खुली जेल में रखा। वहीं बहादुर सिंह की शादी हुई। उनके तीन बेेटे, 2 बेटी और नाती-पोते और भरा पूरा परिवार हैं।
जेल के बाद क्या किया बहादुर सिंह ने
बहादुर सिंह बताते हैं कि जेल से निकल कर उन्हें भाई जी की मदद से शूगर मील में सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी मिली। 25 साल यहां नौकरी की। शूगर मील बंद हो जाने के कारण उनकी नौकरी चली गई। उसके बाद वह भाई जी के जौहरा स्थित आश्रम में रहते हैं। वह 83 साल की उम्र में भी आश्रम में साफ-सफाई व अन्य कार्य करते हैं। वह हर शनिवार को घर जाते हैं और सोमवार को फिर से आश्रम में अपने कार्य में जुट जाते हैं।