ढूंढता रहा
खजाना खुशियों का
भौतिकता की चकाचौंध से
ऊंची दुकानों में
फीके पकवानों में
जलाता रहा
दीपों की पंक्ति
निराशा का अन्धेरा
मिटाने की
चाह में
मगर
दीपों की पक्तियां
बुझती रही
अन्धेरा बढता रहा
भयावना और भयावना
बुझ चुका था
अन्तिम दीप भी
सनसनाती हवा के झोंके से
केवल इन्तजार था
अब फिर से
नई सुबह का नये सूरज का
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