सरदार सरोवर बांध से नफा और नुकसान। पिछले दो दशकों से जारी इस बहस ने हमारे दिलो-दिमाग पर दो चित्र उभारे हैं। पहला चित्र बिजली, पानी और विकास की गंगा के रूप में तो दूसरा हजारों लागों के विस्थापन का दर्द लिए खड़ा है। नर्मदा घाटी के बाहर इस आंदोलन को जानने की उत्सुकता बनी रहती है। आंदोलन की दो रेखाएं सामानान्तर चल रही हैं। एक अहिंसा पर आधारित लड़ाई को जारी रखती है तो दूसरी रचनात्मकता का रास्ता दिखाती है।
बांध से प्रभावित आदिवासियों ने अपने बच्चों के लिए जीवनशाला नाम से कई स्कूल तैयार किए है। लोगों के मुताबिक `लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ´ होना चाहिए। विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वतमालाओं की ओट में यहां कई छोटे और सुंदर गांव हैं। यह गांव अपने जिला मुख्यालय से बेहद दूर और घनघोर जंगलों के बीच हैं। इन स्थानों में स्कूल भवन बनने और शिक्षक आने की राह तकना नियति का खेल समझा जाता था। ऐसा नहीं कि बांध विस्थापितों ने बच्चों की शिक्षा के लिये कभी गुहार नही लगाई हो। हर बार केवल आश्वासन मिलें और स्थिति जस के तस बनी रही। आखिरकार, आदिवासियों ने खुद बदलाव की यह पहल की। 1991-92 में, चिमलखेड़ी और नीमगांव में जीवनशालाएं शुरू हुई। काम नया और कुछ मालूम नहीं होने से चुनौती पहाड की तरह खड़ी थी। फिर भी जीवनशाला का आधार स्बावलंबी रखा गया। शुरूआत से ही सीमित साधन, संसाधन और समुदायिक क्षमता के अनुरुप बेहतर शिक्षा की बात पर बल दिया गया। इन जीवनशालओं का मकसद महज सरकारी स्कूलों की शून्यता भरना नहीं था बल्कि आदिवासी जीवनशैली को कायम रखना भी था। फिलहाल करीब 13 गांव में जीवनशालाएं संचालित है जो आसपास के 1500 से अधिक बच्चों को जिन्दगी की बारहखड़ी सिखाती हैं।
`नर्मदा बचाओं आंदोलन´ से जुड़े आशीष मण्डलोई बताते है कि- “वैसे तो जीवनशाला का जन्म विस्थापन रोकने की लड़ाई का नतीजा रहा मगर जल्दी ही ऐसे स्थान आंदोलनकारियों के लिये विविध चर्चा, रणनीति और कार्यक्रम आयोजन का मुख्य केन्द्र बन गए। इस प्रकार आन्दोलन और जीवनशाला, दोनों को एक-दूसरे को लाभ पहुंचाने लगे। ऐसे स्थान आदिवासी एकता और भागीदारिता के प्रतीक बन गए।´´जीवनशाला में पढ़ाई-लिखाई का तरीका सहज ही रखा गया है। लोगों के बीच से कुछ लोग निकले और पढ़ाने लगे। इसमें गांव की बोली को वरीयता दी गई। इस दौरान किताबों का प्रकाशन भी पवरी/भिलाली बोलियों में किया गया। पहली बार बच्चों को उनकी बोली की किताबें मिल सकी। शिक्षकों ने “अमर केन्या´´ (हमारी कथाएं) में कुल 12 आदिवासी कहानियों को समेटा। इसके अलावा सामाजिक विषयों पर “अम्रो जंगल´´(हमारा जंगल) और “आदिवासी वियाब´´(आदिवासी विवाह) जैसी किताबों को लिखा गया। केवल सिंह गुरूजी ने “अम्रो जंगल´´ में यहां की कई जड़ी-बूटियों को बताया। खुमान सिंह गुरूजी ने “रोज्या नाईक, चीमा नाईक´´ किताब में अंग्रेजी हुकूमत के वक्त संवरिया गांव के संग्राम पर रोशनी डाली। ऐसी किताबों में आदिवासी समाज का ईतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति और परंपराओं से लेकर स्थानीय भूगोल, प्रशासन और कानूनी हकों तक की बातें होती हैं।हरकिताब जैसे कुदरत के साथ दोस्ताना रिश्ता बनाने का संदेश देती है। पढ़ाई को दिलचस्प बनाने के लिये अनेक तरीको को अजमाया गया। “अक्षर ओलखान´´(अक्षरमाला) में यहां की बोली के मुताबिक अक्षरों की पहचान और जोड़ना सिखाया गया है। इसमें कई आवाजों को निकालकर या आसपास की चीजों से मेल-जोल कराना होता है। नाच-गाना, चित्र और खेलों से पढ़ाई मंनारंजक बन जाती है। लिखने की कई विधियां को भी बार-बार दोहराया जाता है।जीवनशाला से निकली पहली पीढ़ी अब तैयार हो चुकी है। जो अब शिक्षक बनकर अपने संस्कारों को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन विकास के नाम पर जंगल काटने और अब घाटी के लोगों को भोजन की कमी महसूस होने लगी है। अपनी जमीन से अलग-थलग यहां का आदिवासी अपने को यकायक बाजार में खड़ा पाता है। उन्हें न आर्थिक सुरक्षा मिल पा रही है और न ही भावनात्मक। इतनी बड़ी निर्दोष आबादी से जहां एक ओर जीने के साधन छीने गए हैं वहीं दूसरी तरफ उन्हें पिछड़ा बताया जा रहा है। विस्थापन का कार्य गति पर है।विस्थापन, दोबारा या बार-बार बसना, सरकारी योजना का लाभ न उठा पाना, कानूनी हक से बेदखल, मेजबान समुदाय की आनाकानी, नया समायोजन, शोषण, यौन उत्पीड़न, अधिक व्यय, हिंसा, अपराध,अव्यवस्था,संसाधन या जमीन की सीमितता, निर्णय की गतिविधि से कटाव, अस्थायी मजदूरी, मवेशियों का त्याग, प्रदूषण, सुविधा व स्वास्थ्य संकट…….. एक तरफ बांध के कारण विस्थापन से विकराल आशंकाओं का इतना भरी बोझ है और दूसरी ओर जीवनशाला के नन्हें बच्चों के हाथों में खुली किताबों-सा खुला आसमान है। हालांकि उन्हें अभी बहुत सी परीक्षा पास करनी हैं मगर किसी के चेहरे पर चिंता की लकीर तक नहीं। बच्चों के हंसते चेहरों को देखकर लाख समस्याओं से लड़ने की मन करता है।
सरदार सरोवर बांध से नफा और नुकसान। पिछले दो दशकों से जारी इस बहस ने हमारे दिलो-दिमाग पर दो चित्र उभारे हैं। पहला चित्र बिजली, पानी और विकास की गंगा के रूप में तो दूसरा हजारों लागों के विस्थापन का दर्द लिए खड़ा है। नर्मदा घाटी के बाहर इस आंदोलन को जानने की उत्सुकता बनी रहती है। आंदोलन की दो रेखाएं सामानान्तर चल रही हैं। एक अहिंसा पर आधारित लड़ाई को जारी रखती है तो दूसरी रचनात्मकता का रास्ता दिखाती है।
बांध से प्रभावित आदिवासियों ने अपने बच्चों के लिए जीवनशाला नाम से कई स्कूल तैयार किए है। लोगों के मुताबिक `लड़ाई-पढ़ाई साथ-साथ´ होना चाहिए। विंध्यांचल और सतपुड़ा पर्वतमालाओं की ओट में यहां कई छोटे और सुंदर गांव हैं। यह गांव अपने जिला मुख्यालय से बेहद दूर और घनघोर जंगलों के बीच हैं। इन स्थानों में स्कूल भवन बनने और शिक्षक आने की राह तकना नियति का खेल समझा जाता था। ऐसा नहीं कि बांध विस्थापितों ने बच्चों की शिक्षा के लिये कभी गुहार नही लगाई हो। हर बार केवल आश्वासन मिलें और स्थिति जस के तस बनी रही। आखिरकार, आदिवासियों ने खुद बदलाव की यह पहल की। 1991-92 में, चिमलखेड़ी और नीमगांव में जीवनशालाएं शुरू हुई। काम नया और कुछ मालूम नहीं होने से चुनौती पहाड की तरह खड़ी थी। फिर भी जीवनशाला का आधार स्बावलंबी रखा गया। शुरूआत से ही सीमित साधन, संसाधन और समुदायिक क्षमता के अनुरुप बेहतर शिक्षा की बात पर बल दिया गया। इन जीवनशालओं का मकसद महज सरकारी स्कूलों की शून्यता भरना नहीं था बल्कि आदिवासी जीवनशैली को कायम रखना भी था। फिलहाल करीब 13 गांव में जीवनशालाएं संचालित है जो आसपास के 1500 से अधिक बच्चों को जिन्दगी की बारहखड़ी सिखाती हैं।
`नर्मदा बचाओं आंदोलन´ से जुड़े आशीष मण्डलोई बताते है कि- “वैसे तो जीवनशाला का जन्म विस्थापन रोकने की लड़ाई का नतीजा रहा मगर जल्दी ही ऐसे स्थान आंदोलनकारियों के लिये विविध चर्चा, रणनीति और कार्यक्रम आयोजन का मुख्य केन्द्र बन गए। इस प्रकार आन्दोलन और जीवनशाला, दोनों को एक-दूसरे को लाभ पहुंचाने लगे। ऐसे स्थान आदिवासी एकता और भागीदारिता के प्रतीक बन गए।´´जीवनशाला में पढ़ाई-लिखाई का तरीका सहज ही रखा गया है। लोगों के बीच से कुछ लोग निकले और पढ़ाने लगे। इसमें गांव की बोली को वरीयता दी गई। इस दौरान किताबों का प्रकाशन भी पवरी/भिलाली बोलियों में किया गया। पहली बार बच्चों को उनकी बोली की किताबें मिल सकी। शिक्षकों ने “अमर केन्या´´ (हमारी कथाएं) में कुल 12 आदिवासी कहानियों को समेटा। इसके अलावा सामाजिक विषयों पर “अम्रो जंगल´´(हमारा जंगल) और “आदिवासी वियाब´´(आदिवासी विवाह) जैसी किताबों को लिखा गया। केवल सिंह गुरूजी ने “अम्रो जंगल´´ में यहां की कई जड़ी-बूटियों को बताया। खुमान सिंह गुरूजी ने “रोज्या नाईक, चीमा नाईक´´ किताब में अंग्रेजी हुकूमत के वक्त संवरिया गांव के संग्राम पर रोशनी डाली। ऐसी किताबों में आदिवासी समाज का ईतिहास, साहित्य, कला, संस्कृति और परंपराओं से लेकर स्थानीय भूगोल, प्रशासन और कानूनी हकों तक की बातें होती हैं।
हर
किताब जैसे कुदरत के साथ दोस्ताना रिश्ता बनाने का संदेश देती है। पढ़ाई को दिलचस्प बनाने के लिये अनेक तरीको को अजमाया गया। “अक्षर ओलखान´´(अक्षरमाला) में यहां की बोली के मुताबिक अक्षरों की पहचान और जोड़ना सिखाया गया है। इसमें कई आवाजों को निकालकर या आसपास की चीजों से मेल-जोल कराना होता है। नाच-गाना, चित्र और खेलों से पढ़ाई मंनारंजक बन जाती है। लिखने की कई विधियां को भी बार-बार दोहराया जाता है।
जीवनशाला से निकली पहली पीढ़ी अब तैयार हो चुकी है। जो अब शिक्षक बनकर अपने संस्कारों को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन विकास के नाम पर जंगल काटने और अब घाटी के लोगों को भोजन की कमी महसूस होने लगी है। अपनी जमीन से अलग-थलग यहां का आदिवासी अपने को यकायक बाजार में खड़ा पाता है। उन्हें न आर्थिक सुरक्षा मिल पा रही है और न ही भावनात्मक। इतनी बड़ी निर्दोष आबादी से जहां एक ओर जीने के साधन छीने गए हैं वहीं दूसरी तरफ उन्हें पिछड़ा बताया जा रहा है। विस्थापन का कार्य गति पर है।
विस्थापन, दोबारा या बार-बार बसना, सरकारी योजना का लाभ न उठा पाना, कानूनी हक से बेदखल, मेजबान समुदाय की आनाकानी, नया समायोजन, शोषण, यौन उत्पीड़न, अधिक व्यय, हिंसा, अपराध,अव्यवस्था,संसाधन या जमीन की सीमितता, निर्णय की गतिविधि से कटाव, अस्थायी मजदूरी, मवेशियों का त्याग, प्रदूषण, सुविधा व स्वास्थ्य संकट…….. एक तरफ बांध के कारण विस्थापन से विकराल आशंकाओं का इतना भरी बोझ है और दूसरी ओर जीवनशाला के नन्हें बच्चों के हाथों में खुली किताबों-सा खुला आसमान है। हालांकि उन्हें अभी बहुत सी परीक्षा पास करनी हैं मगर किसी के चेहरे पर चिंता की लकीर तक नहीं। बच्चों के हंसते चेहरों को देखकर लाख समस्याओं से लड़ने की मन करता है।