नई दिल्ली: बांग्लादेश इस समय गंभीर राजनीतिक अस्थिरता, वैचारिक ध्रुवीकरण और चरमपंथ की आग में जल रहा है। 12 फरवरी 2026 को प्रस्तावित आम चुनावों से ठीक पहले वहां के हालात चिंताजनक बने हुए हैं। कट्टरपंथी युवा नेता शरीफ उस्मान बिन हादी की मौत के बाद पड़ोसी मुल्क में भारत-विरोधी बयानबाजी और हिंसक घटनाओं ने खतरनाक रूप ले लिया है।

मुख्य आरोपी फैसल करीम मसूद के फरार होने और उसके कथित तौर पर भारत भागने की अफवाहों ने आग में घी का काम किया, जिसका सीधा खामियाजा वहां के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय को भुगतना पड़ रहा है। हाल ही में मैमनसिंह जिले में 27 वर्षीय कपड़ा मजदूर दीपू चंद्र दास और रंगपुर में 45 वर्षीय दुकानदार उत्तम कुमार बर्मन की ईशनिंदा के आरोपों में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या कर दी गई। इन घटनाओं ने न केवल भारत में गहरा आक्रोश पैदा किया है, बल्कि दोनों देशों के राजनयिक रिश्तों में भी अभूतपूर्व तल्खी ला दी है।
ढाका में नोबेल पुरस्कार विजेता मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार और नई दिल्ली के बीच अविश्वास की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। ब्रसेल्स स्थित इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप (ICG) की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना की मौजूदगी तनाव का सबसे बड़ा कारण है। जुलाई-अगस्त 2024 के विद्रोह के बाद सत्ता गंवाने वाली हसीना को बांग्लादेशी अदालत ने मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए मौत की सजा सुनाई है। यूनुस सरकार 2013 की प्रत्यर्पण संधि के तहत उनकी वापसी की मांग कर रही है, लेकिन भारत ने अब तक इस पर कोई ठोस प्रतिबद्धता नहीं जताई है।
भारत का स्पष्ट मानना है कि वह संकट के समय अपने पुराने सहयोगियों को अकेला नहीं छोड़ता, जो उसकी सभ्यतागत और मानवीय परंपरा का हिस्सा है। वहीं, शेख हसीना ने भारत से जारी अपने बयानों में यूनुस सरकार को ‘विफल संस्था’ करार देते हुए आरोप लगाया है कि मौजूदा प्रशासन ने चरमपंथियों और आतंकियों को खुली छूट दे रखी है।
इन तमाम भू-राजनीतिक दांव-पेच और कूटनीतिक तनाव के बीच एक बेहद अहम और नैतिक प्रश्न अनुत्तरित खड़ा है। यह सवाल भारत में शरण लिए हुए शेख हसीना के उस रुख को लेकर है, जो उन्होंने अपने 15 साल के शासनकाल के दौरान और अब सत्ता से बाहर होने के बाद अपनाया है। सवाल यह है कि एक साल से अधिक समय से हिंदू-बहुल भारत में सुरक्षित शरण पाने वाली शेख हसीना ने क्या कभी अपनी विफलताओं के लिए माफी मांगने की जरूरत महसूस की?
अपने लंबे कार्यकाल में वह खुद को अल्पसंख्यकों का रक्षक बताती रहीं, लेकिन वास्तविकता यह है कि उनके राज में भी मंदिरों पर हमले, जमीन कब्जाने और हिंदुओं को निशाना बनाने की घटनाएं बदस्तूर जारी रहीं। वह सत्ता में रहते हुए इन समुदायों को प्रभावी सुरक्षा देने में नाकाम रहीं और अब जब दुनिया का कोई भी देश उन्हें अपनाने को तैयार नहीं था, तब भारत ने उन्हें आसरा दिया। ऐसे में विश्लेषकों का मानना है कि क्या भारत के सनातनी समाज से माफी मांगना उनकी नैतिक जिम्मेदारी नहीं बनती? क्या यह स्वीकारोक्ति उनके राजनीतिक जीवन का सबसे पहला और अनिवार्य कदम नहीं होना चाहिए था?